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Monday 5 January 2015

खामोशिया भी बोलती हैं


कभी कभी खामोशियाँ भी बोलती हैं .आप और हमसब तो जुबां से काम लेते हैं. सुनते हैं एक दूजे की बात को,पर महसूस कम ही करते हैं. कभी कुछ चाहकर भी कह नहीं पाते. कभी महसूस करके जता नहीं पाते. कभी जुबां मिली होती खामोशियों को तो जाने ये क्या क्या कह डालती. अभी तो हम इन्हें महसूस ही करते रह जाते हैं,और ये हमें छूकरगुज़र भी जाती हैं.
          रौशनी ख़ुद की है या यह ख़ुद की परछाई का अँधेरा है. ख़ुदा जाने ये करिश्मा किसका है? एहसास के जंगल में ख़यालो का भटकाव कभी पसंद नहीं रहा मुझको.कभी ख्वाबों के जंगल में भी खोने दिया ख़ुदको ,पर कभीकभी लगता हैं,ख्वाब कितनेअच्छे होते हैं. हक़ीकत कभीकभी कितनी तकलीफदेह हो जाया करती है. पर ख्वाब और हक़ीकत में फर्क है कितना मुझे मालूम है ख्वाब जबतक हक़ीकत ना बन जाए एक छलावा है, एक दुश्मन है, हक़ीकत ही सच्चाई है ,या यूँ कहें की सच्ची दोस्त है.  बंदगी तेरी फितरत नहीं, इबादत मेरी भी आदत नहीं.पर ऐ ज़िन्दगी फिर भी कुछ है जो हम दोनों की नज़र है.


सवालों में दिखने लगे जब बदगुमानी
आँखों से झलकने लगे,जब बेईमानी
हम ही नहीं कहता है  समझदार
ख़ामोशी से अच्छा चुप से बेहतर 
होता नहीं इसका कोई जवाब. 
तशद्दुद कैसे आया दिलों में
कैसे दिखावा बसा दिमागों में,
क़हर ख़ुदा का और बदला ज़मीन का 
बहुत हुआ, अब तो बरसे कोई दुआ    आसमानी.

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