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Saturday 3 January 2015

वक़्त की रविश

 

बन नहीं पाता हर शख्स जो वह बनना
चाहता है. वक़त आहिस्ता अहिस्ता उसे अपने जैसा बना देता है . कभी ज़ख्म दे जाता है, कभी मरहम लगाता है .कभी दे जाता है निशां तो कभी निशां मिटाता है. कभी किसी की सज़ा देता जाता है किसी को, ख़ुद की खामी नज़र अंदाज़ कर जाता है. जाने क्यों जहाँ में लफ्ज़ ऐतबार बना . शायद इसीलिए खताएं ओरों की किसी और को बना गईं ख़तावार .

किसी किताब में लिखे अल्फाज़ लिखने वाले ने पता नहीं क्या सोच कर लिखे होते हैं  उसेपढनेवाले कुछ और मतलब निकलते है सबकी अपनी समझ होती है बेचारे वो अल्फाज़ वो क्या सोचते होंगे .ऐसा क्यों होता है ,कुछ सवालों का कोई जवाब नहीं होता है ,क्यों उनकी उम्र सवाल बने हुए ही कट जाती है हाँ किसी एक लफ्ज़ का  अपना कोई वजूद नहीं होता है हाँ वो इस इन्जार में ज़रूर होता है कि इसलफ्ज़ के आगे या पीछेजुड़कर कोई और लफ्ज़ कुछ मतलब बना दे.

           
पढ़कर एक मिसरा किताब में,
रोशन हो रहे हैं कुछ ख्याल दिमाग में
है हर तरफ यही एक शोर हवाओं में 
सूचनओं ने दिया है कुचल संवेदनाओं को 
हवस ने दिया है जनम वेदनाओं को  
दहलता नहीं इन्सान अब घटना हो या दुर्घटना
या हो कत्लेआम छुपा या सरेआम
तस्वीर हो कर रह गए हैं 
ना एहसास ना जज़्बात रहे.
शोर में भीड़ में सारी महफिलों में 
तन्हा से ख़ामोश खड़े है सब                            
तमाशबीन बन रह गए हैं बस. 
वक्त का ये दौर है कुसूरवार 
या हम में आन बसी है ख़लिश, ख्वार .

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